अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं।
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम हैं।
No comments:
Post a Comment
Hello