(2002—03 में इंटरमीडिएट की परीक्षाओं के दौरान लिखी गई यह कविता आज अचानक से ज़ेहन में ताज़ा हो गई। सोचा आपसे भी शेयर कर लूं!)
कई दिन गुजरे
जब मिले थे कहीं
बिल्कुल अपरिचित सी जगह पर
भी तो अपरिचित ही थे!
फिर तुमने ही पहल करके
कुछ पूछा था शायद
मैं अवाक देखता रहा
तुम्हारे होंठ हिलते हुए
आज भी विह्वल हो उठते हैं कान
तुम्हारी मीठी सी बोली सुनने के लिए
तुमसे कुछ कहने के लिए
आतुर हो उठता है मन
काश, हम फिर मिल पाते
और मैं तुमसे कह पाता वो सब
जो सहा है, तेरे बिन!
कई दिन गुजरे
जब मिले थे कहीं
बिल्कुल अपरिचित सी जगह पर
भी तो अपरिचित ही थे!
फिर तुमने ही पहल करके
कुछ पूछा था शायद
मैं अवाक देखता रहा
तुम्हारे होंठ हिलते हुए
आज भी विह्वल हो उठते हैं कान
तुम्हारी मीठी सी बोली सुनने के लिए
तुमसे कुछ कहने के लिए
आतुर हो उठता है मन
काश, हम फिर मिल पाते
और मैं तुमसे कह पाता वो सब
जो सहा है, तेरे बिन!
दीपक मिश्रा
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteराकेश जी धन्यवाद
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